आठ कर्मों के निवारण के लिए साधना
अपने चारों ओर फैले बाहर के विषय – विकारों से मन को हटा कर अपने घर में आध्यात्मिक भावों में लीन हो जाना। यदि हम हर घड़ी हर समय अपनी आत्मा का शोधन नहीं कर सकते तो कम से कम पर्युषण के इन आठ दिनों में तो अवश्य ही करें। आठ कर्मों के निवारण के लिए साधना के ये आठ दिन जैन परंपरा में सबसे महत्वपूर्ण बन गए। सारांश में हम यह कह सकते हैं कि इन आठ दिनों में धर्म ही जीवन का रूप ले लेता है। धर्म से समाज में सहयोग और सामाजिकता का समावेश होता है। बगैर इसके समाज का अस्तित्व संभव नहीं है। इसी से समाज , जाति और राष्ट्र में समरसता आती है और उसकी उन्नति होती है। इसी से मनुष्य का जीवन मूल्यवान बनता है। धर्म प्रधान व्यक्ति सभी को समान दृष्टि से देखता है। अमीर – गरीब , ऊंच – नीच सभी उसकी दृष्टि में बराबर हैं। धर्म प्रधान व्यक्ति न किसी से डरता है और न ही उससे कोई डरता है। धर्म तो जीवन की औषधि है। वह जब मनुष्य में आता है तो ईर्ष्या , मद , घृणा जैसे कई रोग व विकार स्वत : दूर हो जाते हैं। पर्युषण महापर्व धर्ममय जीवन जीने का संदेश देता है।
इन दिनों साधु वर्ग के लिए पांच विशेष कर्तव्य बताए गए हैं -संवत्सरी, प्रतिक्रमण, केशलोचन, यथाशक्ति तपश्चर्या, आलोचना और क्षमायाचना। इसी तरह गृहस्थों (श्रावकों) के लिए भी कुछ विशेष कर्तव्य बताए गए हैं। इनमें मुख्य हैं -शास्त्रों का श्रवण, यथाशक्ति तप, अभयदान, सुपात्र दान, ब्रह्मचर्य का पालन, आरंभ स्मारक का त्याग, संघ की सेवा और क्षमा याचना।